Editorial: चाचा-भतीजे की लड़ाई में राकांपा के अस्तित्व पर लगा सवाल
- By Habib --
- Thursday, 06 Jul, 2023
NCP existence questioned in uncle-nephew fight
NCP's existence questioned in uncle-nephew fight राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में विखंडन एवं अब वर्चस्व की लड़ाई परिवारवादी पार्टियों के लिए उदाहरण है। राकांपा का गठन शरद पवार ने कांग्रेस से अलग होकर किया था, उन्होंने अपनी पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए हरसंभव संघर्ष किया लेकिन जो प्रश्न सभी पूछ रहे हैं, वह यह है कि क्या उन्होंने अपनी पार्टी के सभी नेताओं को आगे बढ़ाने के लिए कुछ किया? एक परिवार के वर्चस्व वाली पार्टियों में नेताओं की पांत तैयार नहीं हो पाती, जैसे कंपनियों पर किसी एक का आधिपत्य होता है और फिर उनके बेटे-बेटी ही उसे आगे संचालित करते हैं, इसी प्रकार परिवारवादी पार्टियों का हाल है।
निश्चित रूप से राकांपा का यह संकट पार्टी के अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी है, क्योंकि यह भी पूरी तरह सुनिश्चित नहीं है कि अजीत पवार के बूते पार्टी आगे बढ़ पाएगी या नहीं, वहीं दूसरी ओर जो संगठन शरद पवार के पास रहेगा, वह भी संभल सकेगा या नहीं। इस प्रकार किन्हीं लोगों की एकता टूटने से एक राजनीतिक संगठन का अस्तित्व समाप्तप्राय हो चला है।
अजीत पवार अलग होने के बाद जहां शिवसेना शिंदे और भाजपा नीत सरकार में उपमुख्यमंत्री बन गए हैं, वहीं दूसरे नेताओं को भी जगह मिल चुकी है, लेकिन अब एक और दल के जुड़ने से अन्य दो में बेचैनी है। यह पूरा तामझाम अवसरवादिता का बड़ा उदाहरण है, लेकिन संख्या बल को मजबूत करते-करते जिस प्रकार से समीकरण बन गए हैं, वे न महाराष्ट्र के विकास के लिए सही हैं, और न ही राष्ट्रीय राजनीति में सही स्थिति कायम करते हैं। यह भी खूब है कि जिस कांग्रेस से अलग होकर शरद पवार ने अपनी पार्टी बनाई, वे उसी के साथ महाविकास अघाड़ी बनाकर सत्ता में हिस्सेदार बन गए। उन्होंने शिवसेना को भी स्वीकार कर लिया लेकिन भाजपा को नहीं कर पाए। अब अपने स्थानीय नेताओं को विश्वास में लिए बगैर वे राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष की एकजुटता में जुटे हैं।
उन्होंने पार्टी अध्यक्ष पद से हटने की बात कहते हुए अपने परिवार से बेटी को आगे बढ़ाने की कोशिश की। बेशक, परिवार में सभी रिश्ते होते हैं, लेकिन क्या पार्टी को भी उसी तर्ज पर लिया जाना चाहिए। क्या पार्टी में उन नेताओं को आगे बढ़ने नहीं देना चाहिए जोकि उसके आकांक्षी हैं और संभव है सक्षम भी। अपने इस्तीफे की घोषणा करते समय शरद पवार के मन में यह रहा होगा कि पार्टी नेता उनकी बेटी सुप्रिया सुले के नाम पर एक राय जाहिर करेंगे, लेकिन हुआ इसके बिल्कुल उलट। और जब पार्टी नेताओं को इसका बखूबी अहसास हो गया कि पार्टी में उनके लिए जगह सीमित होती जा रही है तो वे बगावत पर उतर गए।
शरद पवार भी एक पिता हैं और अपने पुत्र-पुत्री के राजनीतिक भविष्य को संवारने की कौन पिता चेष्टा नहीं करेगा। ऐसा गांधी परिवार कर चुका है, सपा में यह हो चुका है। राजद में ऐसा हुआ है, शिअद इसकी मिसाल है। इनेलो में भी हुआ और यह इस पार्टी के दोफाड़ होने की वजह भी बना। इसी प्रकार दक्षिण के राजनीतिक दलों के साथ हो रहा है। तृणमूल कांग्रेस में इसी प्रकार के हालात बने हुए हैं। बेशक, कंपनी को अगर कोई स्थापित करता है तो उस पर स्वामित्व उस परिवार का होता है, लेकिन क्या राजनीतिक दल में भी एक कंपनी के नियम लागू होने चाहिएं? निश्चित रूप से ऐसा नहीं होना चाहिए। क्योंकि जब यह होगा तो पार्टी के अंदर नया नेतृत्व पैदा ही नहीं होगा। एक परिवार, एक व्यक्ति ही उस पर अपना वर्चस्व कायम रखेगा और उसकी नीतियों, कार्यक्रमों को अपने मुताबिक संचालित करेगा। होना तो यह चाहिए कि पार्टी के अंदर व्यापक लोकतंत्र हो और सभी को आगे बढ़ने का मौका मिले। हालांकि पार्टी के सर्वेसर्वा का अपने परिजनों के प्रति मोह खत्म होगा, इसका ख्याल करना बेमानी है।
राकांपा के समक्ष नेतृत्व का संकट इसी वजह से है। शरद पवार की ओर से पार्टी को अचंभित करना सोची समझी रणनीति हो सकती है। संभव है, वे अपनी बेटी का नाम आगे बढ़वाना चाह रहे थे, लेकिन बाद में उनका ही पासा गलत चला गया। अजीत पवार का यह कहना सर्वथा उचित है कि वे पांच बार राज्य के उपमुख्यमंत्री बन चुके हैं, उनकी भी इच्छा मुख्यमंत्री बनकर जनता की सेवा करने की है।
शरद पवार अगर अजीत पवार को आगे करके पार्टी को संचालित करते तो इससे उनकी पकड़ पार्टी पर खत्म हो सकती थी, इसके बजाय उन्होंने अजीत पवार को पीछे ही धकेल कर रखा, जो गुब्बार अब धीरे-धीरे भरक फूट चुका है। राकांपा पर वर्चस्व का मामला शिवसेना पर कब्जे की लड़ाई की भांति है, चुनाव आयोग भी इस संबंध में सक्रिय हो चुका है। यह लड़ाई क्या रूप लेगी इसका खुलासा जल्द होने वाला है। निश्चित रूप से चाचा-भतीजे के बीच इस जंग में सवाल इस पर रहेगा कि एक पार्टी का पुनरुद्धार होगा या फिर वह भी कागजी बन जाएगी।
यह भी पढ़ें:
Editorial: पंजाब भाजपा की सुनील जाखड़ को सरदारी, बदलेंगे समीकरण
यह भी पढ़ें:
Editorial:पुरुष आयोग की जरूरत नहीं, पर न्याय की तराजू रहे समान